चलोगी अकलतरा के पागलखाने .... ! - एक मर्मस्पर्शी अनुभव
धूप तेज़ हो रही थी, कोई बारह बजे के आसपास का समय था । मैं तेज़ी से घर से निकली, बहुत सारे काम निपटाने थे आज । घर से कुछ ही दूरी पर आई थी कि रास्ते में एक बदहवास घूमती औरत दिखी। छोटे बाल , सिर के बीच में बाल गायब, नंगे फफोलों से भरे पैर, शरीर पर न जाने कितने ज़ख्म।उसने सिर्फ एक छोटा-सा हरे रंग का कपडे का टुकड़ा टांग रखा था अपने बदन पर। वो यहाँ से वहां रास्ते में बेख़ौफ़ घूम रही थी और लोग उसे सहमे हुए देख रहे थे। मुझे यह सब बेहद अजीब लगा। मन किया कि उसकी कुछ मदद करूँ पर काम बेहद जरूरी था इसलिए आगे बढ गई यह सोचकर कि लौटकर देखेंगे। मैंने जल्दी-जल्दी अपना काम निपटाया और फिर पहुँच गई सत्यम चौक । मेरी नज़र उसे ढूंढ ही रही थी कि वो मुझे बिग बाज़ार के पास दिखी। मैं तुरंत एक चप्पल की दुकान में गई और एक स्लीपर दिखाने को कहा पर उनके पास स्लीपर नहीं थी । मैंने उस औरत की तरफ इशारा करते हुए कहा " मुझे उसके लिए एक स्लीपर खरीदनी है, कुछ हो उसके लायक तो बताइए ।" उन्होंने तुरंत एक चप्पल दिखाई पर मैं कुछ तय नहीं कर पा रही थी, " लूं कि नहीं लूं ? उसने नहीं पहने तो ? रुकिए एक मिनट मैं उससे बात करके आती हूँ, अगर राजी हो गई पहनने के लिए तो ही खरीदूंगी वर्ना नहीं ।" मैं बढ़ तो गई उस औरत की तरफ बात करने पर मुझे पता नहीं था कि उससे बात करने पर मेरा क्या हश्र होगा ? बहुत डर लग रहा था । मैंने रोड क्रोस की और धीरे से उससे पूछा " सुनो ! मैं तुम्हे एक चप्पल दिला दूं , पहनोगी उसे ? " कोई जवाब नहीं मिला, जिस तेजी से वो पत्थर बीन रही थी , डर लग रहा था कि एक पत्थर मुझे ही न मार दे । मैंने फिर पूछा," मैं तुम्हे चप्पल दिला दूँ, पहनोगी ?" उसने बेफिक्री से पलटकर कहा, " हाँ ! "
मैं उसे नाप के लिए दुकानदार के पास ले गई , बस क्या था ... उसने तुरंत अपनी पसंद बतानी शुरू कर दी " मैं सिर्फ लखानी पहनती हूँ, कितने में दोगे.... बोलो ...३० में या ४० में ? " एकमात्र उपलब्ध स्लीपर दिखाते हुए उसे फुसलाया, " ये देखो, लखानी तो लिखा है, इसे ही ले लो , गर्मी में काम आएगी।" दुकानदार ने अपनी इच्छानुसार मात्र आधे ही रुपये मुझसे लिए । उसके बाद मैंने उससे पूछा, " कपडे दिला दूँ, पहनोगी ? " वो मान गई और मैं अपनी गाड़ी जूतों की दूकान के पास ही छोड़कर उसके साथ एक नाइटी लेने निकल पड़ी। वो अनामिका न जाने मुझे क्या-क्या बताती जा रही थी और पता नहीं क्यों बार-बार मुझे 'संगीता' बुला रही थी । खैर, मैं अग्रसेन चौक में एक कपडे की दुकान में उसे लेकर पहुंची और उसकी हालत देखते हुए सीढ़ी पर इंतज़ार करने को कहा । मैंने दुकानदारनी से एक नाइटी दिखाने को कहा जो कम रेट की हो और बाहर बैठी अनामिका के लायक हो । उसने मुझसे पूछा, " आप जानती हैं इसे, ये आपकी रिश्तेदार है ? " मैंने कहा " नहीं, यह मुझे सत्यम चौक में मिली, मुझसे इसकी यह हालत देखी नहीं गई ।" उन्होंने नाक सिकोड़ते हुए नौकर को इशारा किया , " सबसे सस्ता जो हो वो निकालो ।" नौकर ने कहा " ३३० रुपये की एक नाइटी है सबसे सस्ती।" मेरे पास इतने रुपये नहीं थे सो हम वहां से चलते बने । अब एक ही रास्ता था, पास ही में घर है, वहां मैं अनामिका को अपने पुराने कपडे दे सकती थी । सो हम घर की ओर चल पड़े । और अनामिका लगातार सड़क पर से गन्दगी एकत्र कर नाली में डालती जाती और मुझे आपबीती बताती जा रही थी ।
" संगीता ! मैं १२ बरस की थी जब मेरी शादी हुई, ३० बरस के आदमी के साथ । मेरी जितनी उम्र थी न शादी के वक़्त उतने बरस की मेरी बेटी ख़त्म हो गई । ससुराल में तो जानती हो बेटी होने का मतलब , मैंने ......( एक नाम लिया जो मुझे याद नहीं है ) से कहा की तुम तो देवी का व्रत करते हो, उनको बोलो हमें भी बेटा दे , हनुमान जी को बोलो हमें बेटा दे । पता है , मैंने अपनी किडनी बहन की बेटी को दे दी, पेट दिखाते हुए बोली, १२ टाँके लगे हैं ( उसके पेट में बीच में एक बड़ी सर्जरी हुई दिख रही थी) इसमें प्लास्टिक भरा है प्लास्टिक .... हाहाहा ! पता है अकलतरा में एक पागलखाना है, जाओगी पागलखाने ? हाहाहा ! संगीता ! मेरी बेटी मर गई ...मेरी उम्र की थी , जितनी मेरी शादी हुई थी ........ मरद के मरे में खाना हुआ था .... उसमे तूने ही तो खीर खिलाई थी ... हाहाहा !" मैंने आसपास के लोगों के हावभाव पढ़ते हुए उसे डांटा " ठीक से रखो अपना कपडा ।" तत्काल उसने मेरी बात मानी और मेरे पैर छूने लगी ।
उसने एक नीले रंग का पैजामा पता नहीं सड़क के किस कोने से निकला और मुझे दिखाया " मेरे पास पैजामा भी है ।" मैंने उससे मुस्कुराते हुए पूछा " पहनोगी कैसे ? इसमें तो नाड़ा ही नहीं है । " वो तुरंत तन के खड़ी हो गई और मेरी तरफ आत्मविश्वास से देखती हुई पैजामे में गठान लगाने लगी। फिर रास्ता साफ़ करती हुई शुरू हो गई , " संगीता ! " मैंने उसकी तरफ मुस्कुराते हुए देखा और बताया " पता है, संगीता मेरी बड़ी बहन का नाम है ।" उसने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया और बताने लगी अपनी आपबीती ।" पागलों का काम करने से पुण्य मिलता है न , इसीलिए मेरी मदद कर रही है ... हाहाहा !" वही-वही बातें, बार-बार ।
कुछ देर चल कर घर आ गया , मैंने उसे बाहर छाँव में बैठने को कहा। उसने तड़पकर कहा " पानी पिला दो , बहुत प्यास लगी है । " मैंने एक बोतल पानी उसे दे दिया और एक पुरानी नाइटी भी जिसकी वो बार-बार अनदेखी कर रही थी इसलिए मैंने खुद ही उसे नाइटी पहना दी। उसने फिर मेरे पैर छुए साथ ही मुझे आशीर्वाद भी दिया कि मुझे संकर जैसा बेटा हो । मैं अटक गई " संकर जैसा ... मतलब ? " उसने स्पष्ट किया, ' संकर मेरे बाप का नाम है (और बोलते-बोलते कहीं खो गई और मुस्कुराने लगी)।" मैंने साफ बता दिया, "मेरे मन में लड़का-लड़की का भेद नहीं है ।" यह सुनते ही वो सोच में पड़ गई जैसे उसने ऐसा पहले कभी न सुना हो न सोचा हो। इतने में मेरी बेटी बाहर आई, उसे देखते ही पहचानकर बोली, " तेरी लड़की है न ये ? तू भी अपनी माँ के जैसी बनना ।" खैर, मैंने खाने का ठिकाना बताते हुए कहा " पास ही एक साईं बाबा का मंदिर है, वहां मिलना मुझे शाम को, वहां तुम्हें खाना ज़रूर मिल जाएगा।" उसने निश्छल मुस्कान देते हुए मेरी तरफ देखा, उसकी सुन्दर दंतपंक्ति देख मैं आश्चर्य में पड़ गई, उसने मुझसे रास्ते में कहा था कि मैं बहुत ज्यादा सुन्दर दिखती थी, यूँ ही नहीं था उसमे इतना आत्मविश्वास।
इस प्रकार अनामिका से मेरी मुलाक़ात ख़त्म हुई। उसकी बातें ...उसकी हंसी...उसका पागलपन ...सबकुछ घूम रहा है आँखों के सामने ।अनामिका, एक साफ़ बात करने वाली औरत ...... खुद मान रही है कि वो पागल है, जानती है दुनिया अपने स्वार्थ के लिए मदद करती है । अपनी बहन की बेटी के लिए किडनी भी दान की या किडनी धोखे से निकाल ली गई मुझे पता नहीं। पर सच बताऊँ ? मुझे अनामिका अच्छी लगी .... बस उसका हार जाना नहीं अच्छा लगा, नसीब को कोसना नहीं अच्छा लगा। जाते-जाते बड़ी उम्मीद से बोली " कलकत्ता में पुन्नू, पुनिया हैं , मुझे छुडवा दो वहाँ।" बात मेरे बस के बाहर होने की वजह से मैंने अनसुनी कर दी। आठ घंटे हो गए हैं अनामिका से अलग हुए पर अभी तक उसकी बातें मेरे दिमाग में घूम रही हैं । सद्गुरु सही कहते हैं, " इन्हें हमारे प्यार, सम्मान और मदद की ज़रूरत है न कि दया की।" अनामिका को लगता है कि मैंने पुण्य कमाने के लिए उसकी मदद की, सच तो यह है कि बचपन से ही जब भी भरी धूप में मैं किसी गरीब को नंगे पैर घूमते देखती हूँ तो मेरा मन कसमसाने लगता है । आज पहली बार आगे बढ़कर किसी की मदद की है। अनामिका को पता नहीं है कि उसने कितने वर्षों से मेरे अन्दर चुभ रहे इस टीस से भरे कांटे को निकालने में मेरी मदद की है। धन्यवाद अनामिका ! आज अपना जीवन मुझे सही दिशा में जाता लगा। देवी माँ तुम्हारा भला करें !
प्यार और सम्मान के बोल सभी समझते हैं, यह बताने के लिए ही मैंने उसके पैर छूने के घटनाक्रमों का उल्लेख किया है । बातें तो और भी हुईं थीं परन्तु व्यापक सन्दर्भ में उनका उल्लेख करना महत्त्वपूर्ण नहीं है। एक अकेली संज्ञा अग्रवाल ( अनामिका की संगीता ) क्या कर लेगी ? सभी नेकदिल लोग साथ मिलकर आगे बढ़ें तो ज़रूर कुछ बात बनेगी। हम समाज के लिए क्या कर सकते हैं यह महत्तवपूर्ण है ... कम या ज्यादा, ये बात बाद की है । अगर आपने आजतक नहीं सोचा था इस तरह तो आज, एक बार इस विषय में सकारात्मक होकर सोचियेगा ज़रूर। अनामिका और उसके जैसे अनेक ज़रूरतमंद लोगों के लिए।
धन्यवाद !
आपकी मानवीय संवेदना को नमन.
ReplyDeleteटिप्पणियों से शब्द पुष्टिकरण हटा देवें, इससे टिप्पणी करने में असुविधा होती है.
अकलतरा देखकर ध्यान गया. सहज प्रवाहयुक्त प्रभावी लेखन.
ReplyDeleteअकलतरा देखकर ध्यान गया
ReplyDeleteये जो है जिन्दगी…………।
संज्ञा जी ! आपकी ह्रदयस्पर्शी अभिव्यक्ति...पढ़ कर मेरे शब्द वाष्पिभूत हो गये,गहन अनुभूति इतनी घनीभूत हो कर छा-गयी की उन पर पार्थिव शब्दों का वजन लादना मुश्किल मालुम पड़ रहा....बहुत खूब...माँ सरस्वती की कृपा सदैव आप पर बनी रहे..~शरद
ReplyDeleteमार्मिक एवं विचारणीय प्रस्तुति
ReplyDeleteआपका आभार वंदना जी , आपने इसे पढ़ा और अपनी प्रतिक्रिया से भी अवगत कराया.
Deleteमननीय रचना
ReplyDeleteधन्यवाद यशोदा जी .
Deleteआपके अनामिका के साथ प्रत्येक अनुभवों को मैंने भी मानो अनुभव कर लिया हो ..आपकी लेखनी के माध्यम से। आप जैसा बनने की भरपूर कोशिस रहेगी।
ReplyDeleteआभार !!
Welcome to my first short story:- बेतुकी खुशियाँ
इस अनुभव को लिखने की पीछे मेरी मंशा यही थी की लोग वह महसूस करें जो वो अक्सर वक़्त की कमी से महसूस नही कर पा रहे हिं. आपने वैसा ही अनुभव किया जैसा मैंने किया तो मैं धन्य हुई . मेरी रचना सार्थक हुई. आपके जैसे अच्छे लोगों की दुनिया को जरुरत है रोहितास जी.
Deleteआपके ब्लॉग मैं अवश्य पढूंगी.
धन्यवाद !
सार्थक संस्मरण ....
ReplyDeleteधन्यवाद संगीता जी .
Deleteबढ़िया प्रस्तुति ....
ReplyDeleteधन्यवाद पंकज जी
Deleteधन्यवाद यशवंत जी . यह मेरी अत्यंत प्रिय रचना है. आपने इस रचना को अपने ब्लॉग में साझा किया इसके लिए मैं आपकी ह्रदय से आभारी हूँ.
ReplyDeletei have already read it and found it to be very heart touching.
ReplyDeleteधन्यवाद !
Deletebehtreen (y)
ReplyDeleteधन्यवाद हर्षा ..
Deleteइसे रचना नहीं कह सकते. ये एक मर्म स्पशी अनुभव है. शायद अंतर्मन को झकझोरने वाला. घटना का वर्णन इस तरह से है की हम स्वयं उस घटित में शामिल होने का अनुभव करते है..
ReplyDeleteशायद दुनिया के दुःख हमारे दुखो से कही ज्यादा है. अगर इस तरह से दुखो को साझा करे तो सबका बोझ हल्का हो जाये.
जी विमल जी . अच्छा काम करने की झिझक दूर हो जाए तो समाज में बहुत परिवर्तन आ जाएगा. आपने इस भाव को समझा .. आभार !
Deletemarmik sachchai,,,,jise jeena mushkil behad mushkil hai...aapki saafgoi kabiletaareef hai
ReplyDeleteThank you sir
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