धम्मं शरणम गच्छामि

धर्मनिरपेक्षता क्या है यह जानने के पहले धर्म क्या है जान लेना चाहिए. धर्म का अर्थ ऐसे परिष्कृत आचरण से लगाया जाता है जिसमे व्यक्ति तन मन और वचन से प्रकृति की मूल प्रवृत्ति से साम्य बनाए और सर्वार्थ लाभ हेतु आनंदपूर्वक तत्पर रहे. धर्म का व्यक्ति के जीवन में कितना महत्वपूर्ण स्थान है यह इस बात से ही जाना जा सकता है कि स्वयं गौतम बुद्ध ने मनुष्य को ' धर्म की शरण में रहें ' का सूत्र बताया है.

प्रश्न यह है कि जब धर्म इतना महत्वपूर्ण है तो धर्मनिरपेक्षता की आवश्यकता क्या है ? क्या धर्म कोई बुरी बात है जिसका अनुयायी होना गलत हो गया कि सबको अपने हिन्दू - मुस्लिम- सिख- यहूदी होने कि सफाई देनी पड़े. सदियों से धर्म को कट्टरता और भ्रांतिपूर्ण परिभाषाओं से जोड़कर अपने हित के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है. यह केवल भारत में नही अपितु सभी देशों में चतुर नेताओं और मठाधीशों द्वारा किया जा रहा है.

धर्म का दोहन केवल सत्ता और धन लोलुप स्वार्थी तत्वों के द्वारा किया जाता है और आगे भी ऐसा किया जाएगा. परन्तु अब तस्वीर कुछ हद तक बदल गई है. शिक्षा और विज्ञान के प्रसार ने लोगों की आँखें खोल दी हैं. धर्म का अनुयायी निश्चित ही शांतिप्रिय व्यक्ति होगा चाहे वो किसी भी देश, दल या मठ से जुड़ा हो. अतः कोई सच्चे शब्दों में कहा जाए तो किसी आस्तिक या नास्तिक व्यक्ति को धर्मनिरपेक्ष होने की आवश्यकता है ही नही.

आज के सन्दर्भ में देखा जाए तो धर्म के साथ ही धर्मनिरपेक्षता शब्द की भी राजनितिक हित में दुर्गति हुई है. वास्तव में जिस सिद्धांत की आवश्यकता ही नही है उसे लोगों के मन में भय बिठाकर सत्ता पाने का अचूक हथियार बनाया गया है. क्या धर्म हमे लड़ना सिखाता है जो हम लोगों को धर्मनिरपेक्षता को ओढने को मजबूर कर रहे हैं ? रही बात धार्मिक दंगों की तो ये सबको पता है कि ऐसे दंगे गुंडे करते हैं न कि पंडित और मौलवी जैसे लोग. हाँ सभी सम्प्रदायों में आपसी बैर रखने वाले कुछ लोग अवश्य मिल जायेंगे परन्तु इसका मतलब यह नही है कि पूरी कौम ही गलत है. आवश्यकता है अपने धर्म को समझने , उसका पालन करने और मानवता को परमधर्म समझने कि ताकि धर्म के दुरूपयोग को रोक जा सके. आज के समय में देश विभाजन जैसी हालत नहीं है अतः धर्म निरपेक्षता शब्द को बदलकर सर्वधर्म समभाव शब्द को वरीयता दी जानी चाहिए ताकि आपसी प्रेम और देश की एकता बनी रहे.

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