रेत के टीले पर - II

हवाएं हैं यहाँ की रेतीली  
चेहरे पर आतीं गर्म सनसनातीं 
कितना भी रगड़ो आँखों को 
फिर भी नहीं दिखता कुछ 
रेत के समुन्दर के सिवा

न जाने कितने कश खींचे 
इन आँखों ने  इंतज़ार के 
कि इक दिन ये रेत 
बन जाएगी मनपसंद सूरत और  
उड़ती हुई बन जाएगी उसकी लट

फिर चलती है हवा सनसनाती  
के फिर ये तिलिस्म टूट जाता है 
रह जाती है कशिश ज़ेहन में 
कि बवंडर फिर सपने लिए जाता है 
नए सपने संजोने का भरोसा देकर 

कभी- कभी क़िस्सागोई भी होती है 
काली कजरारी आँखों से 
फ़लसफ़े उतरते सीधे दिल से दिल तक 
यूँ अपने अक्स में खोने का नशा 
रोक लेता है मुझे रेत के टीले पर

तुम आती रहना यूँ ही पूर्णिमा में
इन टीलों पर मेरे पास लहककर 
तुम्हारा आना - तुम्हारा जाना 
मुझसे मेरी मुलाक़ात कराता रहेगा 
चाँद* का इस दिल में दीदार कराता रहेगा  


* चाँद - भारतीय दर्शन के अनुसार पूर्णिमा का चाँद आत्म-साक्षात्कार का प्रतीक है।  


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