पद्मबोध

कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है....
यूँ ही तू बरसता रहे रह रहकर
यूँ ही आवाज़ आती रहे बूँदों और ज़मीन के खेलने की...
यूँ ही गर्द धुलती रहे पेड़ों से
प्रकृति के गान को सुनते...
सदियाँ बीत जाएँ ऐसे ही
ब्रह्मांड के समूह नृत्य की साक्षी बनते
इसमें एकाकार होकर...

तृष्णा में लिप्त संसार का कष्ट देखकर असहाय महसूस करती हूं। हर तरह से खुद को गिराकर भी खुशी नहीं मिली। अब वो चाहते हैं इस पंकयुद्ध में मैं भी शामिल हो जाऊँ ताकि कुछ तो शरम कम हो उनकी। प्रश्न बड़ा सरल है - असीम छोड़कर तुमसा गंदा बन जाऊँ ताकि तुम्हें, तुम्हारे तुच्छ मन को कुछ आराम मिल जाए ? मेरे सुख का रहस्य जानना है तो मेरे जैसे बनना होगा। छलकपट तृष्णा छोड़नी होगी, कर पाओगे ऐसा ? पद्मबोध बन पाओगे ? क्योंकि मैं तो बोधि हूँ । मैं पंक में न फँसने वाली चाहे लाख उपाय कर लो।

सुखी होने का मार्ग दूसरा है। वहाँ धन छल बल कुछ न लगाना पड़ेगा। पर तुम्हारी समस्या यह है कि तुम इससे चिपक गए हो। ये हटा दो तो तुम असंतुलित हो जाते हो। यही तुम्हारी समस्या है। रस्सी पर चलते हो बैलेंस बना बनाकर तो चलो न.. धरती पर क्यों नट का खेल खेलते हो ? क्यों ये हाथी घोड़ा लिए फिरते हो ? यही तो कारण है तुम्हारे दुख का।

     

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