सुदामा का अहंकार


एक कथा है कि एक बार सुदामा को घमंड हो गया कि मैं तो श्रीकृष्ण के साथ पढ़ा हूं... एक ही गुरुकुल में... एक ही गुरु से... वही कक्षा में... तो पांडव मेरे चरण क्यों नहीं छूते... कृष्ण के पास क्यों जाते हैं? अगर वह कृष्ण के पास ना जाकर मेरे पास आए होते तो महाभारत का युद्ध नहीं होता और मैं चुटकियों में पांडव को उनकी सत्ता दिला देता और बदले में बहुत बड़ा राजपाट अपना भी खड़ा कर लेता दान दक्षिणा के नाम पर।

उन्होंने अपने मन का यह प्रश्न कृष्ण से पूछा और कहा कि तुमने ऐसा विशेष क्या है जो लोग तुमसे प्रश्न पूछते हैं और मेरी इज्जत नहीं करते मैं गरीब का गरीब रह गया। कृष्णा ने कहा, यह पूर्व जन्मों के संस्कार है कि मैं कृष्ण हूं और तुम सुदामा... हम साथ में पढ़े यह इस जन्म के संस्कार हैं। पांडव मुझ में पूर्व जन्म के संस्कार देख रहे हैं और तुम इस जन्म के। हमारी मिट्टी एक सी जरूर है पर दोनों में गुण भिन्न भिन्न हैं। तुम चाहो तो कौरवों का उद्धार कर सकते हो परंतु तुम तो पांडवों का ही उद्धार करना चाहते हो। ऐसा क्यों ? क्योंकि तुम अंदर से जानते हो कि तुम मेरे काम को अपने नाम से प्रचारित करना चाहते हो परंतु तुम्हारी खुद की कोई योग्यता नहीं है कि तुम इस युद्ध को रोक पाते।

सुदामा को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने कृष्ण को सच्चाई याद दिलाने की सोची। उन्होंने सोचा कि जब कण-कण में ईश्वर है तो मैं और कृष्ण भला कैसे अलग हुए? हम तो एक ही कक्षा में पढ़े हैं।

सुदामा अपने प्रश्न को लेकर ब्रह्माजी के पास गए और कहा कि आपने अन्याय किया जो कृष्ण को अलग बनाया और मुझे अलग बनाया। हर कण में ईश्वर हैं तो मैं भी कृष्ण ही हुआ। ब्रह्मा जी ने कहा कि हर कण में भगवान है यह सत्य है परंतु अग्नि जल और जल अग्नि नहीं हो सकता यह भी सत्य है। अपने अहंकार में आकर विश्व का विनाश करने की जगह श्रीकृष्ण की शरण में जाओ तो सुखी रहोगे। सुदामा को ब्रह्माजी के उत्तर से शांति नहीं मिली और वे विष्णु जी के पास गए। उन्होंने विष्णु जी से भी यही प्रश्न पूछा कि जब कण-कण में आप ही हैं तो कृष्ण मुझसे बेहतर कैसे हुए?

विष्णु जी ने कहा कि चलिए एक परीक्षा कर लेते हैं और देख लेते हैं कि क्या आप कृष्ण की तरह योग्य है या नहीं? सुदामा थोड़े घबरा गए और बोले परीक्षा लेने की क्या जरूरत है? वह तो गुरुकुल में गुरुजी लेते ही थे। विष्णु जी सुदामा के इस घबराहट को पहचान गए और मुस्कुराते हुए बोले, इंद्रदेव ने अपना रौद्र रूप दिखाया था तब तुमने क्यों नहीं गोवर्धन पर्वत उठा लिया? सुदामा ने कहा कि वह मैंने ही उठा रखा था पर लोगों ने सोचा कि कृष्ण ने अपनी उंगली पर पर्वत थाम रखा है। विष्णु जी ने कहा तो क्या हम इंद्रदेव से बात करें पुनः वर्षा के लिए ताकि इस बार आप स्वयं को सिद्ध कर सकें और कृष्ण को हम वहां जाने नहीं देंगे। सुदामा को अपनी पोल खुलने का डर था वह फिर घबरा गए और दौड़ के शिव जी के पास गए।

उन्होंने शिव जी से भी वही प्रश्न पूछा जो ब्रह्मा जी और विष्णु जी से पूछा था। शिव जी ने उन्हें कहा कि जब ब्रह्मा जी और विष्णु जी उत्तर दे चुके हैं तो वह शिवजी से और अन्य जानकारी क्या लेना चाहते हैं ? सुदामा ने भगवान शिव से पूछा कि भगवान कृष्ण को तो मां से डांट पड़ती थी। यदि वे विष्णु जी का अवतार होते तो क्या अपने ही मामा का वध करते? क्या अपनी प्रेयसी राधा को न प्राप्त कर लेते? भगवान शिव मुस्कुराए और बोले, सुदामा!  तुम सोचते हो कि श्रीकृष्ण को यशोदा मां ने बचपन में सबके सामने डांटा और मारा था तो वे पूजनीय कैसे हो सकते हैं? जिसे अपने ही मामा का वध करना पड़े वह तो ईश्वर हो ही नहीं सकता! तुम सोचते हो कि अपने प्रेम को प्राप्त कर लेना ही प्रेम की सर्वोच्च परिणीती है! यह तुम्हारी भूल है सुदामा! अवतार को भी संसार में रहने की शिक्षा मां ही देती है क्योंकि वह संसार रूपी पाठशाला की प्रथम शिक्षक होती है। ऐसे में मां की डांट भी प्रेम का ही प्रदर्शन है। कंस अपनी बहन को अत्यंत प्रेम करता था परंतु वह एक अन्यायी शासक था। श्रीकृष्ण ने उसका वध करके धर्म की पुनर्स्थापना की है और पृथ्वीवासियों की निष्पक्ष रूप से रक्षा की है। उन्होंने अपने अवतार रूप को जनहित में प्रतिपादित किया है। राधा और श्रीकृष्ण का प्रेम दैहिक आकर्षण का विषय न होकर गहन अनुभूति के पावन संबंध की ईश्वरीय प्रस्तुति है। श्री कृष्ण ने विषयाससक्त प्रेम की जगह भावनाओं की पवित्रता को अधिक वरीयता दी। यह अद्भुत अलौकिक प्रेम सदियों सदियों तक आदर्श प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण बना रहेगा।

भगवान शिव की बात सुनकर भी सुदामा की आंखें नहीं खुलीं। वे मन ही मन अपमान से कुढ़ रहे थे और यह बात वह सामने नहीं आने देना चाहते थे। इसलिए वह भगवान को प्रणाम करके चुपचाप वापस अपने गांव में आ गए और लोगों को यह बताने लगे कि कैसे तीनों भगवानों ने माना कि वही सिद्धपुरूष हैं और कृष्ण कुछ भी नहीं हैं। लोगों ने उनकी बातों पर विश्वास किया और अपने दुख लेकर सुदामा के पास जाने लगे। सुदामा इससे बहुत खुश हुए परंतु कुछ ही दिनों में अपनी योग्यता सिद्ध न कर पाने की वजह से वह लोगों के क्रोध, उपहास और तिरस्कार का निशाना बन गए। तब सुदामा को अपनी गलती समझ में आई और उन्होंने कृष्ण से अपने दुर्व्यवहार की क्षमा मांगी। कृष्ण जानते थे कि सुदामा अपने खराब व्यवहार को काफी भुगत चुके हैं इसलिए उन्होंने अपने सहपाठी को गले लगाकर उसे क्षमा कर दिया।


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