ममत्व से ओतप्रोत एक अबला पिता


कल ( 21 सितम्बर 2012) प्रधानमंत्री ने देश को हिंदी और अंग्रेजी में सन्देश दिया। सबको उम्मीद थी (क्यों थी ? पहले भी तो कांग्रेस अपने तेवर दिखा चुकी है) कि प्रधानमंत्री बढे हुए दामों से कुछ राहत देंगे और अपनी बात भी बना लेंगे मतलब जनता का विशवास जीत लेंगे कि उन्होंने जो किया वो ठीक किया।  इतना होनहार अर्थशास्त्री , याद करिए .. कैसे 2002 के चुनावों में भारतीय जनता टीवी में जोशोखरोश से कह रहे थे .." हम मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनते देखना  हैं (सोनिया गाँधी को नही)" क्योंकि 1991 में मनमोहन सिंह ने देश बचाया था (?)।  याद करिए .. 1991 में देश का सोना बेचा गया था और जो सुधर किये गए थे वो अवश्यम्भावी थे नाकि पूर्वनियोजित रणनीति का हिस्सा थे। लाइसेंस कानून सुधारे गए थे ... तो ऐसे कड़े कानून बनाए किसने थे जिनसे मदद मिलना तो दूर उल्टा भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा मिलता था ? आज भी जनता 200 साल पुराने कानूनों के नाम पर रोती है।

कल अच्छा लगा बंदी को ईज्जत पाकर .. आखिर हमारे दुनिया में माने हुए मनमोहन सिंह हमसे सीधे कुछ कहने वाले थे ... सो सब काम छोड़कर मूर्खों की तरह ( होशियार पहले खुद को रखता है बाद में किसी और को ) बैठ गए टी वी देखने. भाषण शुरू हुआ ... और जी खुस्स हुआ .. (येह्ह .. ममता दीदी ने इतना तो किया .. जाते-जाते हमारी ईज्जत बढ़ा गईं :P ) पर थोड़ी ही देर के लिए. ज्यों-ज्यों भाषण बढ़ता गया लगा बात तो ठीक है ..  पर मनन करने पर कुछ यूँ लगा जैसे हमलोग बच्चे हैं जो रात को मम्मी से डांट खा रहे थे और मन ही मन जो फीलिंग उस वक़्त आती है और जो भावार्थ एक -एक वाक्य के पीछे  होता है , उसका बयान कुछ इस तरह है - 

"लोग गुमराह कर रहे हैं आपको , यही काम है उनका " 
( 'तुमने' *मुझपर* उंगली उठाई ? मैंने इतना किया तुम्हारे लिए , तुम्हें दिखता नही क्या ? लोकतंत्र जाए तेल लेने। तुम सिर्फ मेरी सुनो)
" पैसे पेड़ पर नही उगते हैं "
(= नो जेबखर्च, सब्सिडी बंद, वाह ! क्या डायलोग मारा है मैंने. अब होगी इसकी बोलती बंद :D)

"तुम्हें दूध पीने मिलता है तो इतराते हो"
(= पाक, नेपाल,बर्मा को देखो, उनके माँ-बाप से हम कितने अच्छे हैं :D )

"मुझे तुम्हारी सूझबूझ पर भरोसा है"
(= मेरी बात मानो और अपने दिमाग का इस्तेमाल मत करो, वर्ना बुद्धू कहूँगी :D आखिर दुनिया ने मेरा लोहा माना है )

"हम हमेशा तुम्हारा भला चाहते हैं"
(= जो  कहा जा रहा है उसे मानो )


"हमने तब ... सही निर्णय लिया था , देखा !
(= हम गलत हो ही नही सकते और तुम हमारे अनुभव की बराबरी कर नही सकते :P)


"शर्माजी के बेटे को देखो , उससे सीखो कुछ "
(= तुम पर भरोसा ?? कभी नही , ऍफ़ डी आई ही है सब )

और अंत में अनकही घुड़कियाँ -

=> रात हो गई है. 

      (उम्मीद की कोई किरण नहीं है )

=> जबान मत लड़ाओ।
     (तुम्हारी क्या औकात कि हमें सही-गलत बताओ )
=> सो जाओ !
     (दिमाग लगाना बंद कर मीठे-मीठे सपने बस देखो , उसे पूरा करने की बातें कर मेरा दिमाग ना खाओ। मैं एक मजबूर अबला हूँ। तुम्हें क्या ? तुम तो आ जाओगे सुबह खाली कटोरा लेकर .. उसे भरने की जद्दोजहद तो मुझे करनी है न. ये सब उतना आसन नही बेटा जितना दिखता है।) 
=>सो जाओ ..वर्ना .... पापा को बता दूंगी/दूंगा और वो तुम्हारी सारी हेकड़ी निकाल देंगे. 
    (राष्ट्रपति धारा 356 लगा देंगे )

एक सामान्य परिवार की तरह सपनो और सच्चाई के बीच झूलता सरकार और जनता का रिश्ता . रोज वही झगडा - रोज वही मनाना। 

इस झगडे का अंत हो सकता है यदि -

- सरकारें जनता की सुनें।
- सरकारें जनता पर विश्वास करे।
- नई पीढ़ी को भावी परिस्तिथियों के लिए तैयार करें।
- जनता का पैसा विदेशों से भारत वापस लाये।
- नए-नियम कानून बनाये जाएँ।
- भ्रष्टाचारियों से पैसे जल्दी वसूले जाएँ और कड़ाई भ्रष्टाचारियों पर की जाए ना की गरीब जनता पर। 
- पंचवर्षीय योजनाओं की जगह वार्षिक योजनायें बनाई जाएँ। 
- भारत में योजनाओं पर नये सिरे से विचार हो।
- ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों पर विशेष ध्यान दिया जाए।
- समस्या को चुनौती मानकर देश के लोगों पर भरोसा कर उद्यम, तकनीकी , कृषि, वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत,पर निवेश नागरिकों को उपलब्ध कराया जाए। 
- नई पीढ़ी को अक्षर ज्ञान से ज्यादा रोजगार परक पढ़ाई कराई जाए और जातीय भेदभाव ख़त्म करने कड़े कदम उठाये जाएँ। 
- अब वैकल्पिक ऊर्जा क्रांति की जाए ताकि हमें किसी पर निर्भर न रहना पड़े। 
- और, साथ ही सरकारी खर्चों में भी कटौती की जाये। 

सरकारें ध्यान रखें, हमने कम्पूटर तकनीक, मिसाईल तकनीक, हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, देश की रक्षा अपने दम पर की है नाकि विदेशी मदद से। अगली बार जब प्रधानमन्त्री देश को संबोधित करें तो एक नेता की तरह करें नाकि अबला मदर इंडिया की तरह जो अपने ही बच्चे की जान ले लेती है। खुद ही सोचिये , ऐसा करके क्या फायदा जबकि हम सिर उठाकर आगे बढ़ सकते हैं। भारत में सम्भावनयें हैं आगे बढ़ने की। भारत को आगे ले जाने के लिए राजनेता दृढ इच्छाशक्ति दिखाएँ और मोंटेक सिंह अहलुवालिया जैसे बुद्धिजीवियों को विदा करें क्योंकि इन्हें यही नही समझ आ रहा है कि नीतियाँ देश के लिए बनाई जाती हैं। यह मात्र आंकड़ों का खेल नही है वरन इन नीतियों से ही गरीब जनता को लाभ मिलता है। अगर आप निचले तबके के बारे में ना सोचकर केवल उपरी तबके की बढ़ोतरी के बारे में सोचेंगे तो वही हालात आयेंगे जो आज हैं। इसके लिए सब्सिडी नही भ्रष्ट नेता-अफसर गठजोड़ और बासी नीतियाँ जम्मेदार हैं। देश को सादगी से भरे साहसी जननायक की आवश्यकता है नाकि किसी ऐसी कठपुतली की जो केवल विदेशों में नाचती है और देश में आकर मौनी बाबा हो जाती है। 


नूर नीरव 
©

Comments

  1. नूर मैम
    आपके इस ब्लॉग को
    एक जबरजस्त सक्तिशाली ब्लॉग कहूँगा मै ..कारण..
    १ . एक व्यंगात्मक शीर्षक
    २ . पिछले कुछ वर्षो के रेकॉर्ड्स
    ३ . उम्मीद .. फिर उम्मीदों पर फिरता पानी
    ४ . जबरजस्त .. लप्पड़ ..थप्पड़ वाली व्यंगात्मक लेखनी
    ५ . एक सुलझा हुआ .. सुझाव ... की कैसे सुधर हो सकता है
    ६ . एक कल्पना की नेता होना कैसा चाहिए ...एक ख्वाहिश ... हमे कैसा नेता चाहिए
    .
    आप का ये लेख मज़ेदार है .. गुस्सा भी आता है ... हंसी भी आती है ...कई तरह के भाव पैदा कर पाने में आप सफल रही है ...
    शुभकामना = आपके कलम के धार और परखर हो ... स्याही का रंग और गाढ़ा होता जाये ... और उसकी छाप सब के दिलो पर पड़े

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  2. सुधान्शुजी,
    आपने बड़ी तन्मयता से लेख पढ़ा और टिप्पणी भी दी.एक लेख लिखते समय यह बात मन में आती है कि पाठकगण इस लेख को कैसे देख रहे हैं ? बहुत आभार आपका कि आपने यह भी बताया कि आपको ये लेख कैसा लगा.
    शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद सर!

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