Aakhir kab tak?

  एक प्रसिद्ध उद्योगपति विजय माल्या ने प्रश्न किया है कि जब सारे कानून इन स्वयं सिद्ध लीडर्स ने ही बनाने हैं तो पार्लियामेंट क्या करेगी? मेरे विचार से यह प्रश्न बिलकुल सही है परन्तु जहाँ विजय माल्या यह प्रश्न पार्लियामेंट कि तरफ से पूछ रहे हैं वहीँ मैं जनता कि तरफ से सोच रही हूँ कि ऐसी पार्लियामेंट किस काम कि जो ६० वर्षों में भी सही निर्णय लेना नहीं सीख सकी है. क्या पार्लियामेंट अब अपनी प्रौढ़ावस्था में नहीं पहुँच गई है ? क्या उसे अभी तक लोकपाल बिल और विदेशों में जमा भारतीय धन के बारे में खुद कोई गंभीर कदम नहीं उठा लेना चाहिए था? इन अति महत्वपूर्ण मसलों पर नियम बनाने के लिए देश को राजनीति से इतर नेताओं की जरुरत क्यों पड़ रही है? क्योंकि, हमारी पार्लियामेंट ने इन ६० वर्षों में ये सिद्ध कर दिया है कि वो सिर्फ अपने बारे में सोचना जानती है और वो जनता कि भलाई के लिए नहीं बनाई गई है.
  बेचारी जनता अपनी राजव्यवस्था के लिए नेताओं पर निर्भर है और भारत देश के अति चतुर नेता ये बात भली-भांति समझते हैं. मानाकि सभी नेता बुरे नहीं हैं पर यह बात तो तय है कि अच्छे नेता किसी काम के नहीं हैं अतः उन्हें भी बुरे लीडर्स में ही गिना जायेगा. इस प्रकार, सभी नेता जो पार्लियामेंट में आसीन हैं जनता के विश्वास के अयोग्य साबित होते हैं. ये केवल अपनी तनख्वाह बढ़ाने के विधेयक में ही फूर्ती और एकता दिखाते हैं और जैसे ही कोई बात आम जनता के हित कि होती है इन्हें ४० वर्षों लम्बी नींद आ जाती है. आज़ादी के बाद से ६४ वर्षों में भारतीय संविधान में करीब १०० संशोधन किये गए हैं परन्तु अभी भी विश्व का सबसे बड़े लोकतंत्र  में  एक मजबूत लोकपाल और लोकायुक्त नहीं हैं. ट्रांसपरेंसी इंटर्नेशनल २०१० के अनुसार भ्रष्टाचार में भारत का स्थान १७८ देशों में ८७ वां है , इमानदारी में भारत को ३.३ अंक मिले हैं जबकि प्रथम पायदान पर पुनः डेनमार्क  है ९.३ अंकों के साथ. 
  कोई भी देश एक सुगठित राजव्यवस्था के अभाव में तरक्की नहीं कर सकता है और एक सुगठित प्रशासन में सबसे बड़ा रोड़ा होता है व्यक्तिगत स्वार्थ पूरित निर्णय निर्माण होना. ऐसी व्यवस्था से 'सुपर पवार' होने कि कल्पना करना भी एक बेजान विचार है. यही कारण है कि भारत से लगातार प्रतिभा का पलायन अधिक अच्छी व्यवस्था वाले देशों की ओर हो रहा है. एक छोटी सी सरकारी नौकरी से लेकर ओलम्पिक कि प्रतिस्पर्धा में भाग लेने तक हर जगह बाबुओं और नेताओं कि चाटुकारिता करनी पड़ती है और एक मोटी रकम तोहफे में देनी पड़ती है. ऐसे में हर क्षेत्र में भारत का पिछड़ना स्वाभाविक है और कहीं अगर तरक्की हुई भी है तो वह व्यक्ति के स्वयं के बलबूते हुई है नाकि उसे कोई सरकारी सहायता मिली है जिसके लिए सरकार जनता से मोटी रकम टैक्स के रूप में वसूलती है. 
  भारत में ब्रिटिश डेमोक्रेसी अपनाई गई है जहाँ लोग वोट देकर किसी उम्मीदवार को अपना नेता चुनते हैं और वह नेता संसद में जनता का प्रतिनिधित्व करता है. भारतीय संसद दो सदनों से बनी है जिसमे एक उच्च सदन है तथा एक निम्न सदन है . लोकसभा निम्न सदन है जोकि सीधे तौर पर जनता से जुडी होती है और नियम निर्माण में महती भूमिका निभाती है. राज्य सभा उच्च सदन है जो कि  कुछ मामलों में लोकसभा पर लगाम रख सकती है तथा अन्य विषयों में वह लोकसभा कि अनुगामी मात्र है. यह बात विगत वर्षों में साफ़ हो गई है कि यह दोनों सदन जनता कि अपेक्षाओं में खरे नहीं उतरे हैं और अब भारतीय संविधान में व्यापक बदलाव कि आवश्यकता महसूस कि जा रही है ताकि देश को मुट्टी भर नेता अपने स्वार्थ के धनी लोगों को बेच न दें. 
  स्वित्ज़रलैंड में भी डेमोक्रेसी है पर थोड़ी अलग तरह की, वहां जनता की प्रत्येक निर्णय में सक्रीय भागीदारी होती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी निर्णय लोकहित को टाक में रखकर ना किया जा सके. वहां नगरीय स्तर पर सभी निर्णय जनता के बीच वोटिंग कराकर लिए जाते हैं उसके बाद ही जनता द्वारा चुने गए नेता उक्त प्रस्ताव पर कोई क़ानून बना सकते हैं. अति महत्वपूर्ण मसलों पर भी जनता से राय लेने के बाद ही कोई प्रस्ताव देश स्तर पर कानून बन सकता है. यही वजह है कि स्वित्ज़रलैंड को विश्व के सबसे ईमानदार और अच्छे प्रशासनों में गिना जाता है. निश्चित ही हमें ऐसे मॉडल पर भी विचार करना चाहिए.  
  कुछ लोगों को यह विचार भारतीय परिप्रेक्ष्य में अटपटा व अव्यवहारिक लग सकता है परन्तु ऐसा नहीं है. क्या हम ऐसी व्यवस्था का निर्माण नहीं कर सकते जिसमे किसान तय कर सके कि उसके लिए उचित नीति क्या होगी? विद्यार्थी तय कर सके कि पढाई कि कौन इस व्यवस्था उसे आगे बढ़ने में मदद करेगी? करदाता तय कर सके कि कितना कर वह स्वेच्छा से भारतीय हित में दे सकते है जिससे कि उसका अपना अहित भी न हो? ऐसा हो सकता है, ये असंभव नहीं है क्योंकि अब भारत पहले जैसा नहीं रहा.  अब यहाँ साक्षरता बढ़ रही है और जितना हम लोगो को आगे बढ़ाएंगे उतना ही वो ज्यादा समझदार होंगे. जनता नादान है कहकर अपना स्वार्थ साधने वाले नेताओं को अब साधना पड़ेगा और इसके लिए  इससे  अच्छा मौका और कब आएगा जब खुद श्री अन्ना हजारेजी और बाबा रामदेव जैसे सिद्ध पुरूष आगे आकर देश कि जनता को जगा रहे हैं. अब भारत नेताविहीन नहीं है, यहाँ के युवाओं ने स्पष्ट कर दिया है कि उनकी सस्ती राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है और वो अच्छे लोगों को पहचानते भी हैं और उनके साथ भी हैं. 
  

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