आप सभी को नागपंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं
उफ्फ्फ !!! हिन्दू होना कितना कठिन काम है.... ये करो वो करो , ऐसे करो वैसे करो. हे भगवान् !! आज की ही बात ले लीजिये... नाग पंचमी का त्यौहार है. एक दंश से ही प्राण हरने वाले "नागों" की पूजा की जाएगी ताकि उनसे हम सुख-शांति प्राप्त कर सकें ?!! जैसा इतना अत्याचारपूर्ण कृत्य कम था कि बिच्छूओं की रक्षा के लिए भी एक कथा बना दी. आपने भी पढ़ी ज़रूर होगी ... एक संत थे जो नदी में संकट में पड़े बिच्छू की रक्षा के लिए बार-बार उसका दंश सहते थे. अर्थात आप अच्छे हैं तो उनसे भी अच्छे से व्यवहार करेंगे जो आपका अहित करते हैं . यही है सच्चे संत की पहचान .. यही ना ? नहीं, यह सच नहीं है... सत्य तो यह है कि भला व्यवहार करने वाले को दुनिया मुंह पर सीधा और पीठ पीछे मूर्ख कहती है.
तो फिर हमारे ज्ञानी संत क्यों हमें मूर्ख की श्रेणी में डालना चाहते हैं ? शायद इसलिए कि उन्हें कर्मफल सिद्धांत का पूर्ण ज्ञान है. जो बुरा करेगा वो बुरा पाएगा. यह तो सत्य है पर उस विष को सहने के समय प्राप्त हुए कष्ट को तो सहना ही पड़ता है न. यहाँ एक तथ्य यह है कि सर्प विष हमारी जान भी बचाता है . यदि समस्त सर्प जाति का उन्मूलन कर दिया गया तो मानव जाति का ही नुक्सान होगा. वहीँ यदि बिच्छू के दंश निकाल दिए जाएँ तो वह संकट के समय अपने शत्रु का सामना नहीं कर पाएगा और मारा जाएगा. अतः किसी बिच्छू की सहायता हुई तभी मानी जाएगी जब आप वह काम कष्ट सहकर याने बिना बिच्छू का डंक निकाले करें .. वही होगा सच्चा परोपकार .
हमारी संस्कृति में सबका बचाव किया गया है .. मक्खी और मच्छर को छोड़कर. बात तो सही लगती है कि अगर यह परम्परा है तो कोई महत्त्वपूर्ण कारण तो अवश्य होगा पर वास्तविक जीवन में इस शिक्षा की कसौटी पर खरे उतरना बहुत कठिन लगता है कि प्रकृति के हर रूप से एकसार हो जाओ. एक बार तो जी में आता ही है कि निकाल दो सारा विष .. फिर देखते हैं परन्तु फिर कोई कसौटी ही नहीं बचेगी जिसपर खुद को कसा जा सके. हम अपने मन में सर्प के सर को कुचलने को उद्यत विष को अपने अन्दर फैलने से नहीं रोक पाएंगे. आज की तारीख में तो मैं इस कसौटी में फेल हूँ ... कल का पता नहीं.
भारतीय संस्कृति में आस्था के तहत " नागदेवता " को प्रणाम करती हूँ.
हम्म....... शांति मिली .
तो चलिए अपने-अपने (सर्प और मैं ) रस्ते ... और जो टकरा गए तो .................
प्रणाम !!
ईश्वर ने अदभुत संसार रचाया। प्रकृति को एकसार कर सभी प्राणियों का जीवन एक दूसरे पर एवं प्रकृति पर निर्भर किया। साँप भी उसी प्रकृति का अंग हैं। जो पर्यावरण का संतुलन बनाए रहते हैं। मनुष्य जिस जगह पर अपने रहने का स्थान बनाता है उस जगह के मालिक सांप ही होते हैं। फ़िर उनके आने पर हम भयवश उन्हे मार डालते हैं। यही होते आया है, मनुष्य ने जिससे भय खाया, उसकी वंदना की या मार डाला।
ReplyDeleteधरा का कोई भी प्राणी अपनी मूल प्रकृति को छोड़ नहीं पाता। अपनी प्रकृति से इतर कुछ कृत्रिम करने की कोशिश करता है तो वह हानिकारक ही होता है।
अच्छी पोस्ट संज्ञा जी, आभार……॥