एक पत्र का अवसान

२ .


बड़ी ही मुश्किल से बाहर निकल पा रहा हूँ इस तने से। ठंडी - ठंडी हवा भी मेरा कष्ट कम नही कर पा रही है।

आहा ... निकल आया। कितना अँधेरा है यहाँ चारों तरफ। ह्म्म… शांतचित्त ... विस्मय से निहारता .. थकान से चूर सो गया नवागत पत्र।

सुबह की शीतल बयार का सूर्य की कोमल रश्मियों के साथ फुगड़ी खेलते हुए और पीछे से विहंग कलरव की अजान ने नवागत का स्वागत किया। इतनी ताजगी , सुन्दरता और सम्पूर्णता जिससे पत्र स्वयं को भूपति सा महसूस कर रहा था।

पता ही नहीं चला कितना समय व्यतीत हो गया ऐसे अपलक सृष्टि को निहारते। ऊष्मा की बढ़ती मात्रा शरीर में ऊर्जा बढ़ाती जा रही है।

और .. नीचे से कुछ आवाज़ भी आ रही है .. कुछ अलग सी आवाज़ ....

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

फिर बहुत से आवाजें एक साथ स्वरबद्ध आने लगीं ..

बुद्धं शरणम गच्छामि
संघम शरणम गच्छामि
धम्मं शरणम गच्छामि

'भगवन !
ध्यान में मन नहीं लगता। कोशिश करता हूँ परन्तु मनके - मनके दुखों की माला ...... साँस रोक लेती है .. क्या करूँ ?
कुछ भी करूँ .. कितना भी करूँ .. दुःख से पार नही पा पाता।
कैसे शांति प्राप्त करूँ ? '

' वत्स !
जीवन इस क्षण है।
दुःख भी एक क्षण में था और सुख भी। उसकी इस क्षण अनुभूति करना दुःख का कारण है। सम्यक स्मृति का पालन करो अर्थात जो स्मृति योग्य है केवल उसका चिंतन मनन करो।'

' भगवन !
सम्यक स्मृति का पालन कैसे हो ? यह कार्य सरल नहीं। '

' वत्स !
सम्यक स्मृति के लिए सम्यक दृष्टि आवश्यक है। सम्यक दृष्टि ही सम्यक वाक् की ओर  अग्रसर करेगी और सम्यक वाक् , सम्यक क्रिया की ओर अग्रसर करेगा। आष्टांग मार्ग का पालन ही समाधि की अवस्था तक पहुंचा सकता है। एक ऐसी अवस्था जब दुःख आतंरिक नहीं अपितु बाह्य क्रिया हो जाएगा। '

पत्र यह वार्तालाप बड़े ध्यान से सुन रहा था प्रकृति का आनंद लेते हुए उस व्यक्ति की समीपता में जो वृक्ष के नीचे बैठा है .. एक अंतहीन 'जीवन'।

(क्रमशः)


'एक पत्र का अवसान १'

Comments

  1. विमल आदित्यMonday, June 17, 2013 at 6:38:00 PM GMT+5:30

    बहुत ही ज्ञान वर्धक..सम्यक दृष्टि के संयोजन का बहुत ही सरल वर्णन

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