'वी - द इमली पीपल '

पटेल के घर का नजारा देख रो पड़ीं सोनिया, राहुल ने दिया मां को सहारा......( समाचार )

राबर्ट वाड्रा को भी आना चाहिए था सोनिया गाँधी के साथ हताहतो का हाल जानने. खुद अपनी आँखों से देखना था कि पैसे के दम पर इतराने वालों से 'इमली पीपल' कैसे निपटते हैं. कल सोनिया गाँधी के आँसू सिर्फ नंदकुमार पटेल के लिए नहीं बहे होंगे अपितु उन्हें बरबस ही आपबीती भी याद हो आई होगी. परन्तु सोनिया गाँधी ने इससे क्या सबक लिया ? क्या अब वे समझेंगी कि अपना परिवार सुरक्षित रखने के लिए उन्हें उन अन्य परिवारों के सुख-दुःख से भी जुड़ना होगा जो दुःख के हद से पार होने के बाद कुछ भी कर सकते हैं. हालाँकि ऐसा लगता तो नहीं है क्योंकि राहुल गाँधी खुद बोल चुके हैं कि माँ ने कहा है की ताज काँटों से भरा होता है. आज भी गाँधी परिवार दलित के घर सुख-दुःख बांटने ( उनके घर खाने और सोने ) चुनावों के वक्त ही जाता है. क्या राहुल गाँधी ठीक घटनास्थल वाले गाँव में किसी आदिवासी के यहाँ जायेंगे रात को खाना खाने और सोने .. चलिए .. चुनावों के समय ही सही .. जायेंगे ? जवाब है ' नहीं ' . बात साफ़ है की आलाकमान अपने  दुःख ( और पैसा कमाओ ताकि बाथरूम और सुन्दर बन सके ) में अत्यंत दुखी है. गाँव वालों का दुःख दर्द बांटने का बहुमूल्य समय उनके पास नहीं है.



अपने राजतन्त्र को स्यूडो लोकतंत्र से चलाने वाले इन नेताओं के प्लेन चेहरे पर कल अवाक का भाव तब उभरा है जब खुद पर हमला हो गया. वैसे चीन, पाक , बांग्लादेश हो या अमेरिका ये किसी से नहीं डरे. इन्हें सिर्फ अपनी चिंता थी , है और रहेगी. तो क्या होगा नक्सली समस्या का क्योंकि नेता - अफसर - मानवाधिकार कार्यकर्ता तो सही रास्ता निकाल पाने में असमर्थ रहे हैं. ये स्वार्थी और लालची को अस्तेय और अपरिग्रह नही सिखा पाए साथ ही, बेबस लाचार को पलायन कर खुद को साबित कर दो नहीं सिखा पाए हैं.  तो क्या आगे भी ऐसा ही चलता रहेगा.. जैसे को तैसा ?

ऐसे ही चलता रहा जैसे को तैसा तो उस का जवाब होगा .. जैसे को तैसा. कहते हैं कश्मीर की वादियाँ अभी तक इसलिए बची हुई हैं क्योंकि कश्मीर सेना के हाथ में है और इस कारण उसकी पहाड़ियों का व्यापारिक सौदा नहीं हो पाता है. लगता है इसी प्रकार अब दंडकारण्य को भी बचाया जा सकेगा. तो क्या यही चाहता है इमली पीपल ? अब बहुत समय से उठ रही मांग पूरी होने को है... बस्तर सेना को समर्पित होने को है. परन्तु इससे भी समस्या नही सुलझेगी क्योंकि सेना कश्मीर की समस्या का हल नहीं बन पाई है. बस एक पिंजरा बना पाई है जिसमें आम लोग आतंकवादियों के साथ-साथ सेना के बिगड़े जवानों के आतंक को भी सह रहे हैं बेबस और लाचार होकर.

मजबूरीवश देखते जाइये तट पर खड़े इस क्रमिक नरसंहार को क्योंकि आगे अभी और भी ऐसी खबरें कतार में कड़ी हैं अपनी बारी के इन्तेजार में - ' लोकतंत्र पर सबसे बड़ा हमला बाय - वी द इमली पीपल .'
है न ?

Comments

  1. क्या बात ! मैं बिल्कुल सहमत हूं आपसे।
    जो सवाल आपने उठाया है वो सौ प्रतिशत सही है।
    राहुल ऐसे दुखी परिवार के बीच रात बिताते तो
    एक सकारात्मक संदेश भी जाता।
    सच में
    अब तो लगता है कि आंसू भी भरोसे के काबिल नहीं रहे,
    इसमें भी बेईमानी होती है।

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    Replies
    1. नमस्ते महेंद्र जी

      धन्यवाद !

      नेताओं के जनता से न जुड़ने के कारण ही नक्सली भोले भाले गाँव वालों से अपना काम निकलवा पा रहे हैं. आगे भी ऐसे दुर्दांत हमलों का खामियाजा ग्रामीण ही उठाएंगे. इस बात का दुःख है.

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