Ahum se Brahm tak ki yatra

    कभी अकेले बैठे सोचती हूँ कि मैं कौन हूँ ? मैं क्या हूँ? मैं जो हूँ वो क्यों हूँ या जो नहीं हूँ तो क्यों नहीं? कभी सोच दूसरों कि तरफ जाती है तो कभी पता नहीं कहाँ चली जाती है जैसे कि मन ने तय ही कर लिया हो कि एक जगह तो नहीं बैठना है| सोचते सोचते उन महात्माओं के बारे में सोचती हूँ जो कहते हैं कि इस जग में मेरा कुछ नहीं, सब मिथ्या है| सही कहते हैं ऐसा लगता है | आज बुद्धपूर्णिमा है, वह दिन जब भगवान् बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था नीलांजना नदी के पास एक वटवृक्ष के नीचे जिसे अब बोधिवृक्ष कहा जाता है| यह जगह बिहार के बोधगया में है और यह जगह वर्ल्ड हेरिटेज बन गई है| 
    जबतक हमारी सोच 'मैं' तक सीमित रहती है हम छोटी-छोटी बातों में ही उलझे रहते हैं और हर छोटी हसरत पूरी करके भी सोचते हैं कि हजार ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले| अपनी निराशा से बचने के लिए 
इसके बाद जब हम 'अहम' से 'त्वम' कि तरफ बढ़ते हैं तो और घपले शुरू हो जाते हैं| जैसे ही हम 'त्वं' पे अपनी अच्छाइयों और उसकी बुराइयों को प्रकट करते हैं तैसे ही हमें हमारी असलियत दिखा दी जाती है|  और हम फिर ठगा महसूस करते हैं| क्या करें कुछ समझ नहीं आता है|
    उसके बाद जैसा कि इंडिया में होता है हम 'तवं' से 'वयं' कि तरफ बढ़ते हैं|  मदद कर हम सुखानुभूति प्राप्त करने के झूठे सपने संजोये होते हैं, वही कृतघ्न लोग हम पर नाना कारणों से पत्थरबाजी कर रहे होते हैं| फिर लगता है, अरे बाप रे बाप! कहाँ फंस गए हम | ऐसा होते वक़्त तो बड़ा बुरा लगता है पर आध्यात्म कि राह यहीं से शुरू होती है, कष्टों को देखकर ही हम ये जान पाते हैं कि न अहम् सत्य है न तवं पूर्ण है न वयं में ही पूर्णता है| तो वो क्या है जो है परन्तु हमें दिखता नहीं है?
    यही जानने निकले थे राजकुमार सिद्धार्थ| जीवन के समस्त सुखों को भोगकर भी वो सुखी न हुए और कठोर तप करके भी अंतिम सत्य को ना जान पाए| अंत में जब समस्त असफल प्रयासों से थके हारे बुद्ध जब बोधिवृक्ष के नीचे बैठे थे कि तभी उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हुआ और वो सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए|  एक पल जिसने  एक हांरे हुए इंसान से  उन्हें ईश्वर  बदल दिया| उस समय ना वो राजकुमार थे ना ही गृहस्थ और ना ही कोई ऋषि-मुनि बल्कि एक ऐसे इंसान थे जिनमें संतुलन था जो प्रकृति में है और वो ब्रह्मत्व को प्राप्त हुए| उन्हें अपनी सम्पूर्णता का अहसास हुआ और साथ ही प्रकृति से अपने जुड़ाव का भी| 
    ऐसी ही यात्रा हम सब कर रहे हैं जाने अनजाने | अहम् से त्वम, त्वम से वयम और वयम  से ब्रह्म तक की यात्रा | वह यात्रा जिसमे हममे निहित सत्व, तमस, और रजस गुण संतुलन में आ जाते हैं और हम सभी कर्म बंधनों से खुद को आजाद पाते हैं |  

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