हमारा पर्यावरण

घर की हौद में कमल के फूलों के बीच सुंदर सुंदर चिड़ियाँ नहातीं, फड़फड़ातीं और सावधानी से चलती हुईं पानी के कीड़े खातीं बहुत प्यारी लगती हैं। मन करता है ये यूं ही संध्याजी की तरह पंख होते तो उड़ आती रे जैसी भंगिमाएँ बनातीं रहें और हम छुपकर चुपचाप इन्हें देखते रहें। मन करता है फोटो लूँ पर हमारी कोई भी हरकत इनके सामान्य जीवन में अड़ंगा न बने सोचकर ....

इधर धूप ऐसे तेज़ होती जा रही है जैसे बच्चों ने होड़ लगा ली हो कि किसका झूला सबसे ऊपर जाएगा। कभी रायपुर, कभी चाँपा, कभी बिलासपुर ... गजब प्रेस्टीज इश्यू बन गया है जनसामान्य में कि हमारा शहर सबसे गरम था कल... पेपर में आया है .. तुम्हारा 42° होगा .. हमारा 42.5° है .. और रूको थोड़ा 45° होना भी कोई बड़ी बात नहीं है.. पर इतना बोलते वक्त रूतबा 'दुखता' में बदल जाता है।

सोचती हूँ हमारी क्यूट गौरैया का क्या होगा अगर उसके आसपास पानी न हुआ और हुआ भी तो अगर उस स्त्रोत के पास अहीर याने शिकारी हुआ तो ? हमारी अरपा नदी इनकी समस्या का हल हो सकती है .. वहाँ चिड़ियों को आसरा मिल सकता है प्राकृतिक शरणस्थली के रूप में। ओह्ह.. याद आया ... हमें पहले तो अरपाजी को बचाना होगा पर कैसे? हम तो अपने घरों में पेड़ उगाते हैं अरपा तट पर नहीं फिर पूजा भी घर में करते हैं अरपाजी की नहीं। यहाँ तक की हमने कभी अरपा को अरपाजी तक नहीं कहा.. मतलब... हम बिलासपुर की प्राण शक्ति से ही कभी नहीं जुड़े तो अब ... सहिए 46.5° ताफमान हर साल।

हमारे अहम् ने हमें हमारी संस्कृति से विमुख किया है। अहम् को स्वार्थ भी कह सकते हैं। न नदियाँ बचीं न गायें बचाइए.. न चिड़ियाँ बचेंगी न पेड़ ... और सच - सच बताऊँ ... किसी बम के मदर और फादर की जरूरत नहीं है .. हम खुदही धीमी आत्महत्या के चरम को .....

तो क्या करें.. भई... वेदों को गरियाना ही पढ़े लिखे होने का सबूत है.. समाज सुधारक होने का सबूत है .. सबने किया ये तो... । मेरी दादी कहतीं थीं कि तेरी सहेली कुएँ में कूदी तो तू भी कूदेगी क्या ? भई जब आप रिज़ल्ट देख रहे हो सामने तब भी आँख बंद किए रहोगे क्या ?  अब तो नवाचार अपनाइए ... कब तक सौ साल पुराने ट्रेंड पर चलेंगे..।  आज का ट्रैंड 'वेदों की ओर लौटो' ही है मानो या न मानो ..
एक बात और, स्नेह और देखभाल भी गंगाजल की तरह तरल और पवित्र हैं। इनका प्रयोग भी भरी गर्मी में ज़रूर करिएगा ...  सूर्यदेव का प्रकोप कम मालूम पड़ेगा  ...

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