Amul Baby to Angry Man



एक युवा कांग्रेसी नेता के रूप में राहुल गाँधी अपने पिता राजीव गाँधी और दादी इंदिरा गाँधी से ज्यादा खुशनसीब हैं. उन्हें मौका मिला है राजनीति समझने का और अपनी टीम तैयार करने का ताकि जब वो कोई जिम्मेदारी का पद लें तो अनुभवी भी हों और उनकी एक टीम हो जो उन्हें सहयोग और समर्थन देती रहे. परन्तु इतनी तैयारी के बाद भी राहुल गाँधी अपना वह स्थान नहीं बना पाए हैं जिसकी उम्मीद थी. क्या कारण है कि उनका अब पहले जैसा करिश्मा नहीं रहा. कहाँ चूक गए राहुल गाँधी?

उत्तर प्रदेश कांग्रेस का गढ़ रहा है. खुद नेहरुजी फूलपुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ते थे, राजीव गाँधी भी उत्तर प्रदेश के अमेठी से चुनाव लड़ते थे. इस सबके बाद भी एक तबके विशेष ने उनके पुरखों की जमीन हिलाकर कांग्रेस को यह अच्छे से समझा दिया है कि वे निचले तबके के अनपढ़ लोग जरुर हैं परन्तु इतने भी भावुक नहीं हैं कि कोई उनकी बात समझ रहा है कि नहीं और उनकी दिशा और दशा सुधार रहा है कि नहीं वे ना समझ सकें. कांशीराम, मायावती, मुलायम सिंह ऐसे ही नहीं आगे बढ़ गए, उन्हें आगे बढ़ाया कांग्रेस की गलत नीतियों ने.


कांग्रेस हमेशा जाति और समुदाय का कार्ड खेलती है और फिर धर्मनिरपेक्ष बन जाती है. कांग्रेस का यह ढोंग खुद उस पर भारी  पड़ गया जब क्षेत्रीयतावाद भारत में पैर फैलाने लगा. इसकी जिम्मेदार भी कांग्रेस है. भारत में केवल नेहरुजी और गांधीजी ही भारतीयता का प्रतीक  नहीं हैं अपितु अनेक लोग हैं, जैसे, रबिन्द्र नाथ टैगोर, भगत सिंह, बिरसा मुंडा, महादेव गोविन्द रानाडे, शिवाजी आदि परन्तु अपने निजी स्वार्थ के लिए कांग्रेस ने इन सबके नाम प्रचारित करना उचित नहीं समझा. साथ ही, दिल्ली की राजनीति में सभी कार्यकर्ताओं को पीसा जिससे क्षेत्रीय समस्याएँ बलवती हुईं.

आज भी, जब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पूरा देश एक हो गया था और गांधीजी के ही अहिंसक तरीके से आन्दोलन कर रहा था तो कांग्रेस का ध्यान आन्दोलन कुचलने में लगा था, इस देश में धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब अहिंदू होना कैसे हो गया ? बाबा रामदेव के आन्दोलन को समर्थन देने में कौन सी साम्प्रदायिकता भड़क रही थी, उनके साथ आर एस एस खड़ी थी तो उसमे बुरे क्या है? इस देश में तिब्बती रह सकते हैं, बंगलादेशी रह सकते हैं, नेपाली रह सकते हैं, संघी नहीं रह सकते ? ये तो बड़ी विचित्र दलील है कि अन्ना के पीछे आर एस एस है इसलिए अन्ना का आन्दोलन सही नहीं है. संसद में सभी राहुल गाँधी की और टकटकी लगाये बैठे थे परन्तु वहां भी राजनीति ने राहुल गाँधी के पैर बाँध दिए, वे सांसदों के हक में बोले भले जनता से उनकी ठन गई.

आज भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि हम तो कहते हैं कि अब जिम्मेदारी ले लीजिये परन्तु वे मना कर देते हैं. क्यों? क्या वो (राहुल ) जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते हैं? या यह स्वीकारते हैं कि वे जिम्मेदारी उठा नहीं पाएंगे, तो फिर औरों को क्यों कोसते हैं? केरल के चुनावों में अच्युतानंद ने उन्हें अमूल बेबी की संज्ञा दी थी. लगता है इस बार राहुल यह नहीं सुनना चाहते हैं और एक अच्छे कलाकार की भांति गुस्से वाले चित्र कांग्रेस के पोस्टर में लगवाए हैं. राहुलजी, जनता महंगाई से त्रस्त है, भ्रष्टाचार से त्रस्त है, दिग्विजय सिंह के बेतुके बयानों से त्रस्त है, आपको इन बातों पर गुस्सा क्यों नहीं आता है? अहिंसक आन्दोलन कर रहे लोगों पर रात को लाठी चलवाने वाले लोगों पर गुस्सा क्यों नहीं आता है? कुछ नहीं तो नेहरूजी का तो लिहाज कीजिये और फूलपुर को गन्दी राजनीति का अखाडा मत बनाइये. कहीं ऐसा ना हो कि जनता गुस्से में आकर आपको फूल बना दे. 

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